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ध
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श्रीमतो मोहन देवी मखी
श्राय धर्मथिं ट्स्ट,
आई-१२७, कीतिनगर, नई दित्ली-११००१५
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अपनी जन्मदात्री ५
स्वर्गाय माता मोहन देवीः मुख को जिनकी श्रसौम ९
कृपा श्रौर तपस्या से हम वेदिक यज्ञ-पद्धति में
निष्ठा, सचि एवं श्रद्धा रषये श्रौर
जिनको प्रेरणादायक संस्मरण सवदा
हमारा मागं-दशंन करते रहते हं ।
सादर समपित
"न
†
विनीत-पुत्र एवं ४
युधिष्ठिर लाल मुखी
वी रसंन मुखी
विजय कुमार मुखी
सुदेश मित्र मुखी
भारत मित्र मुखी
राजं रानी भाटिया
लीलावती वर्मा
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ओरेम्
पुर्तक के खम्बन्ध में
श्रीमती सरोज मुखी एक योग्य अध्यापिका होने के .साथ-
साथ धर्म में भी गहरी रुचि रखती हँ । उनकी इच्छा बनी
रहती है कि भारतीय-मूल के लोग विदेशों में रह कर अपनी
सस्कृति के प्रति सदा जागरूक रहें ओर भारतीय परम्पराओं
को अपनी सन्तानो को भी उत्तराधिकार में सोंपते जाये । इसी
दुष्ट से उनका यह प्रयास हे।
` वैदिक हवन-यज्ञ-विधि में केवल उतने ही मन्त्र रखे गये
हैँ जितनों से विदेशों में रहने वाले भारतीयों को सुविधा हो;
। रुचि बनी रहे; समय कम लगे। प्रत्येक विधि का सकेत
अग्रेजी मे इस लिये दे दिया गया हे कि हिन्दी न जानने वाले
` लोग भी विधि का ठीक प्रकार से अनुशीलन कर सके । वेद-
मत्रों के अर्थं बड़ी सुगम विधि से हिन्दीमेंदे दिये गये हें
यज्ञ-हवन की इस संक्षिप्त विधि के उपरान्त जन्य-
दिवख पर बोले जाने वाले कुछ मन्त्र जिनका अर्थ
कविता मे दिया गया दै, सम्मिलित कयि ग्ये दें।
पि^ एए शाद 3^ प पर उच्चारण किये जाने
वाले ये आशीष वचन प्रेरणादायक सिद होगे।
आदरणीय श्री वेदप्रकाश जी शास्त्री, अवकाश प्राप्त प्रधान
आचार्य, ^ -67, कीर्सिनगर व माननीय श्रदेय परमसुख जी
पाण्डेय पुरोहित, आर्यसमाज, मोतीनगर, जिन्ोने पुस्तक में
दिये गये मन्त्रो व उनके अर्थो का संशोधन किया वं प्फ
शोधन का कठिन कार्य भी किया एवं श्री ओ म् प्रकाश गुप्ता
जिन्डोने मनोढारी मुद्रण का सतत निरीक्षण कर, थोड़े से
समय मे, इस प्रयास को सफल बनाने में पूर्णं रूपेण
सहायता की उन सब का हार्दिकं आभार प्रकट करते हूए
परम पिता परमेश्वर से उनके हर प्रकार् के कल्याण व
सफल जीवन कौ कामना करता हू |
विजयकुमार मुखी `
| मेनेजिग ट्स्टी
श्रीमती मोहन देवी मुखी, आर्य धमार्थ ट्रस्ट,
आई-127, कीर्तिनगर नई दिल्ली-११००१५
समर्पण
अपनी जन्मदात्री
स्वर्गीया माता मोहनदेवी मुखी को
जिन की असीम कृपा ओर तपस्या से
हम वैदिक यज्ञ-पद्रति में
निष्ठा, रुचि एव श्रद्वा
रख पाए ओर जिन के
प्ररणादायक संस्मरण ¦
सर्वदा हमारा मार्गदर्शन
करते रहते देँ
सादर समर्पित
विनीत :--- |
पुत्र एवं पुत्रियां
त |
। । ओं सच्चिदानन्दाय परमात्मने नमः ।।
| डकन-मनत्राः |
सब संस्कारों के. आदि मे निम्नलिखित' ईश्वर की स्तुति,
प्रार्थना ओर उपासना के मंत्रों का पाठ ओर अर्थं एक विद्वान्
एवं बुद्धिमान व्यक्ति स्थिर चित्त होकर परमात्मा मे ध्यान
` लगाकर करे ओर सब लोग उसमें ध्यान लगाकर सुने ओर
विचारे- (सं. विधि.) |
अथेश्वरस्तुति-प्रार्थनोपाखना-मन्त्राः `
|
|
।
1. ओं विश्वानि ` देव सवितर्दुरितानि परादुव
यद्भद्रं तन्न आसुव ।। १।।
अर्थ- हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र
एेश्वर्ययुक्त, शुद्र-स्वरूप, सन सुखो के दाता परमेश्वर !
आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन ओर दुःखों को
द्र कर दीजिए। ज कल्याणकारण गुण, कर्म, स्वभाव ओर
पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कराइए।। १॥
(इन आठ मंत्रों से ईश्वरस्तुति प्रार्थनोपासना करं) सरल
व्याख्या -- |
ओं देव
खविल : -- हे सुखों के दाता, सारे जगत के
पिता ओखम्।
विश्वानि -- हमारे सब |
दुरितानि ` -- दुर्गुण, दुर्व्यसन ओर दुःखो को `
परादुव ` -- द्र कर दीजिए ओर
9
यद् -- जो
दन् -- कल्याणकारी गुण, कर्म, स्वभाव,
तथा पदार्थ हँ
तत् नः -- वह सब हमें
आसुव -- प्रदान कीजिए!
2. ओं हिरण्यगर्भः खमवर्तताग्र भूतस्य जातः
पतिरेक आसीत्। ख दाधार पृथिवीं यासुतेमां
कस्ये देवाय हविषा विधेम ॥ ।२। ।
जो स्वप्रकाश-स्वरूप ओर जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य
चन्द्रमादि पदार्थं उत्पन्न करके धारण किए ह, जो उत्पन्न
हए सम्पूर्णं जगत् का प्रसिद्ध स्वामी एकं है चेतन स्वरूप था,
जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्वं वर्तमान था, वह इस
भूमि ओर सूर्यादि को धारण कर रहा. है। हम लोग उस
सुख -स्वरूप , शुद्ध परमात्मा के ` लिए ग्रहण करने योग्य
योगाभ्यास ओर अति प्रेम से भक्ति विशेष किया करे ॥२॥ . ,,
सरत व्याख्या -- ओम् (हे परमेश्वर ! आप) `
हिरण्यगर्भः -- स्वप्रकाश-स्वरूप, सभी प्रकाशकं
वस्तुओं को धारण करने वाले
= -- सारे जगत की उत्पत्ति से पहले
खलवर्तल _- -विराजमानथे `
भूतस्य -- उत्यनन हुए जगत् का,
जातः -- प्रसि
त्कः चतिः -- एक ही स्वामी
८
आसीत् -- था, हे।
खः -- आप, भूमि
उत इमाम् चयाम् - तथा द्युलोक आदि लोको के
दाधार -- स्थिर रखने वाले हे।
कस्मै -- हम, सुखस्वरूप,
देवाय ` ~ श्र परमात्मा आपकी
इविषा विधेम - भक्ति मे निमग्न रहे।
3. ओं य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते
प्रशिषं यस्य ॒देवाः। यस्यच्छायाऽमृतं यख्य
मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। ३ ।।
जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा ओर समाज के
भल का देनेहारा, जिसकी सब विद्वान् लोग उपासना करते दै
* ओर जिसका प्रत्यक्ष सत्य स्वरूप शासन, न्याय अर्थात् शिक्षा
को मानते हें, जिसका आश्रय ही मोक्ष-सुखदायक है, जिसका
न मानना अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु
हे, हम लोग उस सुख-स्वरूप, सकल ज्ञान के देने हारे
परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा ओर अन्तःकरण से
भक्त्ति अथत् उसी की आज्ञापालन करने में तत्पर रहें।। ३॥
खरलं व्याख्या -- ओं- हे परम पिता! आप
आत्यदा बलदा -- आत्मनल तथा- हर प्रकार की
शक्तिके दाताहं
विश्वे देवाः -- संसार के सब विद्वान मनुष्य, `
यस्य -- जिस आपकी
उचाखते -- उपासना करते हैः ओर,
८
९
प्रशिषम् -- आज्ञा ओर शासन को मानते हे
यस्य चाया -- जिस आपका आश्रय लेने से,
अमृतम् -- मोक्षादि सुखो की प्राप्ति होती हे,
. मृत्यु : -- जिसके न मानने से मूत्यु आदि
| -दुःखों को भोगना पड़ता हे,
कस्मै देवाय -- हम . उस दुःख -रहित, सुखदाता
परमेश्वर आपकी
हविषा विधेम -- आज्ञा का पालन करते रहें अर्थात्
वेदानुकूल व्यवहार करे ।
4. यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो
बभूव । य ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै
देवाय हविषा विधेम । । ४ । ।
जो प्राण वाले ओर अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त
महिमा से एक ही विराजमान राजा है, जो इस मनुष्यादि ओर
गो आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है, हम लोग उस
सुखस्वरूप, सकल एश्वर्य के देने हारे परमात्मा के लिए
सकल उत्तम सामग्री से विशेष भक्ति करे।
खरत व्याख्या -- ओं-हे परमपिता ! रक्षक
यः ` - जो आप
` प्राणत्तो -- प्राणधारी तथा,
निमिषतो . - अप्राणिरूप,
` जगतो -- जगत के
महित्वा एक इत्- - अपनी महिमा से एक ही सबसे
| | बडे, |
`. शाजां-. .- = व्यवस्थापक अर्थात्. नियम सें
| ` ` `“ ` ` ` चलाने वाले
| -- जो आप
| ¬ इस जगत्के.
| -- दो पैर वाले (मनुष्य आदि) ओर
चोर पैर. वालं (पशु) प्राणिमात्र
. -स्वमीरै ए
~ उसं आप .आनन्ददाता परमेश्वर
-- हम लोग हृदय से उपासना करते
। ` ` . . रै। , ४
। . 5 ओं येनं चौरुग्रा. पृथिवी च -दृढा येन .
। स्वःस्तभिंतं येनं नोक; । यो अन्तरिक्षे रजसो
५. विमानः. कस्मै रै देवाय हविषा विधेम।।५।। .
न तीक्ष्णे स्वभावं वाले सूर्यं आदि ओर
` जगदीश्वर ने सुख को धारण ओर `
हितं > १ को धारण कियांदहै, जो . `
१२९
6. ओं प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि
परिता बभूव । यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु
कयं ख्याम चवतयो रयीणाम् ॥। & ।।
हे [प्रजापते] सब प्रजा के स्वामी परमात्मा! [त्वत्]
आपसे [अन्यः] भिन्न दूसरा कोड [ता] उन [एतानि] इन
[विश्वा] सब [जातानि] उत्पन्न हए चेतनादिकं को [न]
नीं [परिबभूव] तिरस्कार करता है अयत् आप सर्वोपरि हे ।
[यत्कामाः] जिस पदार्थं की कामना वाले होकर हमलोग [ति]
आपका [जुहुमः] आश्रय लेवें ओर वांछा करे, [तत्] वह
कामना [नः] हमारी सिद होवे, जिससे [वयम्] हम लोग
[रयीणाम्] धन-एेश्व्यो के [पतयः] स्वामी [स्याम]
होवें ।। & ।।
7. ओं ख नो बन्धुर्जनिता ख विधाता धामानि वेद
श्ुवनानि विश्वा। यत्र॒ देवा अमृतमान--
शानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त । ।७।।
ठे मनुष्यो ! [सः] वह परमात्मा [नः] अपने लोगों को `
[बन्धुः] भ्राता के मान सुखदायक, [जनिता] जगत् का
उत्पादक, [सः] वह [विधाता] सब कामों का पूर्णं करने हारा
[विश्वा] संपूर्ण [भुवनानि] लोकमात्र ओर [धामानि] नाम,
स्थान ओर जन्मों को वेद] जानता है। ओर [यत्न] जिस
[तीये] सांसारिक सुखदुःख से रहित नित्यानन्द युक्त `
[धामन्] मोक्ष स्वरूप धारण करने हारे परमात्मा में
[अमतम्] मोक्ष को [आनशानाः] प्राप्त होके [देवाः] विद्वान `.
लोग ॒[अध्यैरन्त] स्वेच्छापूर्वक विचरते . है, वही परमात्मा
१२
अपना गुरु, आचार्य, राजा ओर न्यायाधीश हे। अपने लोग
मिलकर सदा उसकी भक्ति करे॥। ७॥
8, ओम् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि
देव वायनानि विद्वान् । युयोध्यस्मज्जुहूराणमेनो
भूयिष्ठां ते नम उक्त विधेम ।। ८ ।।
हे [अग्ने] स्वप्रकाश, जानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश ,
करने . हारे [देव] सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे
[विद्रान्] - संपूर्ण विदायुक्त हैँ, कृपा करके [अस्मान्] हम `
लोगो को [राये] विज्ञान व राज्यादि एेश्वर्य की प्राप्ति के लिए
[सुपथा] .अच्छे धर्मयुक्त आप्त लोगो के मार्ग से [विश्वानि]
संपूर्ण [वयुनानि] प्रज्ञान ओर उत्तम कर्म [नय] प्राप्त कराइए
ओर [अस्मत्] हमसे [जुहुराणम्] कुटिलतायुक्त [एनः]
पापरूप कर्म को [युयोधि] हर कीजिए, इस कारण हम लोग
ति] आपकी [भूयिष्ठाम्] बहुत प्रकार की स्तुतिरूप [नम
उक्तिम्] नम्रतापूर्वक प्रशंसा [विधेम] सदा किया करे ओर
सदा आनन्द में रहे । ८॥
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800 \५0116|९ 68111 85 10 168५ 8
10016 118.
अथय स्वस््ति-वाचनम्
1. ओं अग्निमीडे पुरोहित यज्ञस्य देवमृत्विजम्
होतारं रत्नधातमम् ।।
भावार्थ-- जो जानस्वरूप, सर्वत्र व्यापक, सब प्रकार के
यज्ञादि श्रेष्ठ कर्मों का प्रकाशक, सब ऋूतुओं में पूजनीय, सब
सुखों का दाता ओर जो धन एवं एश्वर्य का भंडार हे, हम
सब को एेसे प्रभु की उपासना, प्रार्थना व स्तुति करनी
चाहिए
2. ओं ख नः पितेव सूनवेऽग्ने सूपायनो भव ।
खचस्वा नः स्वस्तये ।। `
हे प्रभो ! हमं आपके इतने समीप हों जैसे एक पुत्र अपने
पिता के संमीप होता हे। हम आपसे एश्वर्य एवं सुख की
याचना करते हे । हमें कल्याणो सै सम्पन्न कीजिए।
3. ओं स्वस्ति नो मिमीताम् अश्विना भगः
स्वस्ति देव्यदितिरनर्बणः। स्वस्ति. पूषा
असुरो दधातु नः स्वस्ति. द्यावापृथिवी
सुचेतुना ।।
9.1
दे प्रु! हमारी प्रार्थना है कि जल एवं वायु हम सबक
लिए शुभ हों। हम सब के लिए सम्पूर्ण एश्वर्य, यह पृथ्वी
सूर्य, मेघ आदि शुभ दय । ये सभी हमारे अज्ञान ओर आलस्य
को दूर कर हमारा कल्याण करे । हमारी वैज्ञानिक उन्नति के
लिए पृथ्वी एवं अतरिक्ष शुभ हो ।
4. ओं स्वस्तये वायुसुपन्रवामहै दखोम स्वस्ति
भुवनस्य यस्पतिः बृहस्पतिं खर्वगणं स्वस्तये
स्वस्तय आदितव्याखो भवन्तु नः: ।।
हे प्रभु, हम कल्याण के लिए वायुदेव की उपासना करे।
एे्वर्य देने वला चन्द्रमा अपनी शांतिमय किरणो से इस
ससार की रक्षा करे। हे ससार की रचना करने वाले प्रभु,
हमं अपनी रक्षा के लिए आपकी शरण में आते है ओर
` याचना करते हैँ कि हममे से बहुत से लोग ज्ञानी व वेदों के
जाता बनें ।
5. ओं विश्वे देवा नो अद्या स्वस्तये वैश्वानरो
वसुरग्निः स्वस्तये। दैवा अवन्त्वूभवः
स्वस्तये स्वस्ति नो रुदः पात्वंहसः ।।
ठे प्रभु, विद्रान् हमारे लिए सुख-दायक हो । आप हम
सबको एश्वर्य प्रदान करे। विद्वान् हमें बुरे कर्मों ओर बुरी
आदतों से बचा । न्याय-स्वरूप प्रभु, हमे पापों से बचाइए।
6. ओं स्वस्ति मित्रावरुण स्वस्ति पथ्ये रेवति ।
स्वस्ति न इन्द्रश्चाग्निश्च स्वस्ति नो अदिते
कधि ।।
९१५
हे प्रभु, हमारे लिए विद्युत, अग्नि 4 ओर जल
कल्याणकारी हों । शुभ एश्वर्य ओर सौभाग्य की हम सब पर्
वर्षा हो । हम दीर्घायु हों ।
7. ओं स्वस्ति पन्यामनुचरेम सूर्याचन्दरमसाविव ।
पूनर्ददताऽचघ्नता जानता खगमेमहि । ।।
हे" ईश्वर, जैसे सूर्य ओर चांद पूरे संसार के लिए
सुखकारी हें, उसी प्रकार हम दूखयों को सन्मार्ग पर प्रेरित
करने में सहायक हों । सहायता देने वाले, किसी को दुःख न
देने वाले विद्वानों के साथ मित्रता करे।
8. ओं ये देवानाम् यजिया यजियानां मनोर्यजत्रा
अमृता ऋतल्लाः । ते नो राखन्ताम् उरूगायमद्य
यूयं पात स्वस्तिभिः खटा नः ।।
वे (सत) जो विद्वानों मे सम्माननीय हँ ओर जो यज्ञादि
करने में कुशल हें, वे हम पर ज्ञान की वर्षा करें। विद्धान्
लोग अपने आशीर्वाद से सदा सर्वत्र हमारी रक्षा करे ।
(111 ७171 1। १,११.१।।,१।॥
[106 जौी्वाना। 1<8180817) 18171185 816
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26866 1 8॥ {011 01/€11075, 06866 10 ।
९€
0{1॥ 11011265, 68066 ॥ 04 50611\,
6868 11 0111 1781101 20 8/00\५/€ 8॥
6866 ॥0 1116 \«1016 ५014.
अथ शान्ति-करणस्
1. ओं यज्जाग्रतो दुरसुदेति . दैव तदु सुप्तस्य
। तथेवेति। दूरंगमं ज्योतिषाम् ज्योतिरेकं तन्मे
मनः शिवसकल्यमस्तु ।।
हे ओम् ! यह दिव्य गुणों वाला मन जो जागते हुए बहूत
द्र तक जाता है ओर जो मनं सोते हृए भी, उसी प्रकार द्र-
` दुर गति करता हे , वह प्रकाशमय मेरा मन शुभ संकल्पो
वालादहो।
2. ओं येन कमण्यिपसो मनीषिणो यज्ञे कृण्वन्ति
विदथेषु धीराः। यदपूर्वं यक्षमन्तः प्रजानां
तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु । ।
हे ओम् ! सयम कर जिस मन से मुनिजन यज्ञादि करते हे
ओर शुभ कार्यो मे लगे रहते हे, जो .अपूर्वं सब विषयों के
ज्ञान का साधन हर मानव मेहे, हे प्रभु, मेरा वह मन शुभ
विचारो से भरा रहे।
3. ओं यत्प्रज्ञानसुत चेतो धुतिश्च यज्ज्योतिरन्तर-
मृतं प्रजायु । यस्मान्न ऋते किञ्चन कर्म
क्रियते तन्मे नमः: शिवयकल्पस्तु ।।
|
~क
= ह नुं
. १७ 1414
ओम! जो मन.ज्ञान का उत्तम भंडार है, स्मरण शक्ति
ओर धारणा शक्ति का सोत हे, जिस सन के बिना कोई भी
कर्म नदीं किया जा सकता, वह मेरा मन शुभसंकल्यों वाला
हो।
4. ओं येनेदे भूतं सुवन भविष्यत्परिगृहीलममूतेन
सर्वम्! येन यज्ञस्तायते सप्तहोता तन्मे सन
शिवसकल्यमस्तु ।।
` ओम् ! जिस अमृत मन से भूत, वर्तमान एवं भविष्यत् के
सब वृत्तांतं जाने जाते हँ, जो मन सातों होताओं (देखना,
सुनना, सांस लेना, बोलना, चखना, स्पर्श ओर चलना) को
वश में करता हे, वह मेरा मन अच्छे विचारों से भरा रहे।
5. ओं यस््मिन्नचः साम यजूषि यस्मिन्
प्रविष््ठिता रथनाभाविवाराः यस्मिश्च
सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवखकल्पमस्तु ।।
अर्थ-- ओम् ! जिसमें ऋग्वेद, यजुर्वेद ओर सामवेद चक्र
की नाभि मे अरो के समान लगे हैँ ओर सांसारिक ज्ञान धागे
में मणियों के समान जुडा दे, जिसमें प्रजाओं का सब कु
निहितं दै, वह मेरा मन शिव संकल्पो वाला हो।
6. ओं सुषारथिरश्वानिव यन्मनुव्यान्नेनीयतेऽभी- `
शुभिर्वाजिन इव । इत्प्रतिष्ठे यदजिरं जविष्ठं
तन्मे मनः: शिवसंकल्पमस्तु ।।
ओम् ! हमे एेसी शक्ति दो कि हम अपने इस चंचल मन
१८
को अपने वश में इस प्रकार लाप जैसे एक अच्छ रथवान्
चंचल घोडों को लगाम एवं अपनी कुशलता से काबू में लाता,
है। इदय में स्थित एवं अवृदढ मेरा. यह मनं शुभ विचारो से
भरा रहे। '
7. ओं ख नः पवख्व शं गवे शं जनाय शमठ्ते। शं
राजन्नोषधीभ्यः ।।
हे परमेश्वर ! आप गोओं, घोड़ों, मनुष्यो, अन्न ओर
जडी-बूटियों की रक्षा के लिए हमे सामर्थ्य प्रदान कीजिए।
वनस्यति-जगत् हमारी प्रसन्नता ओर शान्ति का कारण जने।
8. ओं अभयं नः करत्यन्तरिक्षमभयं यावा-पथिवी .
उभे इमे। अभयं पश्चादभयं पुरस्तादुततराद-
धरादभयं नो अस्तु ।।
अर्थ- हे जगत्-पिता परमेश्वर ! अतरिक्ष लोक से ह
अभय प्रदान करो। द्युलोक ओर पृथिवी लोक से भी हस
अभय प्रदान हो, ओर पीच्े, ऊपर, नीचे, पूर्व, पश्चिम,
उत्तर ओर दक्षिण आदि दिशाओं से भी हमे किसी प्रकार का
भय नं हो।
9. ओं अभयं सित्रादभयमसित्रादभयं ज्ञातादभयं
परोश्चात्। अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वां `
आशा मम भित्र भवन्तु ।।
अर्य--हे जगदीश्वर! हमे मित्रों से ओर शत्रुओं से
नेर्भय करो। हम जानने वालों से अभय रहं, न जानने वालों
म अभय हों। दिन ओर रात सर्वदा हम निर्भय कर; चारों
काः चो को का = मा ~
१९,
दिशाँ ओर वहाँ के रहने वाले सभी लोग हमारे मित्र हों ।
अथय अग्निहोत्रम् (देव-यज)
यज्ञ के लिए बेठे हुए सब लोग अपने जलपात्र से दां
हाथ की हथेली पर थोड़ा जल लेकर नीचे लिखे मत्रं से तीन
आचमन करें।. |
1. ओं अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा ।। इससे पहला
आचमन करें।
अर्थ- हे प्रभु, आप जल के समान शांति देने वाले हे,
हमें शांति प्रदान कीजिए। जैसे जल हमारे जीवन का आधार
है, वैसे ही आप जीवन के आधार हे ।
2. ओं अमृतापिधानमसि स्वाहा ।। इससे दूसरा `
आचमन करे ।
अर्थ--हे परमेश्वर ! जैसे जल मेव बन कर ऊपर से
सुख की वृष्टि करता दे, उसी प्रकार आप हमें संकटों से
बचाते हे ।
3. ओं सत्यं यशः श्रीर्मयि श्रीः श्रयताम् स्वाहा ।।
इससे तीसरा आचमन करे ।
अर्थ --े परमात्मन् ! हमें सत्य के मार्ग पर चलते हए
यश ओर लक्ष्मी प्राप्त हो ताकि हम द्सरों की भी सहायता
कर सके ।
[थोडे से जल से अपना सीधा हाथ धोए]
| २०
अग-मार्जन स्यर्श-विधि
ऊपर लिखे तीन मंत्रों से.आचमन करने के बाद बाणं हाथ
की हथेली में थोडा जल लेकर दाँ हाथ की नीच की दो
अगुलियों से नीचे लिखे मंत्रों का उच्चारण करते हए अगः
स्पर्श करे ओर सातवें से मार्जन करे ।
ओं बाड-म आस्येऽस्तु ।।*१।। इससे मुख का स्पर्शं
करे।
` ओं नसोर्मे प्राणोऽस्तु ।। २ ।। उससे नासिका का।
ओं अक्ष्णो्मे चश्ुरस्त॒ ।। ३ ।। इससे दोनो आंखो का।
ओं कण्योर्मे श्रोत्रमस्तु ।। ४।। उससे दोनों कानों .
का। | | |
ओं बाद्वोर्मे बलमस्तु ।। ५।। उससे दोनो भुजाओं .
का। |
ओं ऊर्वोर्म ओजोऽस्तु ।। & ।। इससे दोनो जांघो का।
ओम अरिष्टानि मेऽगानि तनूस्तन्वा मे खहं
सन्तु ।। ७।। इससे सारे शरीर पर जल का मार्जन करं ।
इनके अर्थ :- हे प्रभो ' मेरे मुख मे वाकृशक्ति, दोनों
नासिका-छिद्रो में प्राण-शक्त्त, आखो मे देखने की शक्ति
ओर कानों मे सुनने की शक्ति बनी रहे। मेरी भुजां बलवान्
रहें। मेरी जंघाओं मे लने का सामर्थ्य रहे। मेरे सम्पूर्ण अग
ओर सारा शरीर ही रोग-रहित बना रहे । , (शि
२९१
| अग्न्याधान-प्रकरणम्
ओं भूर्भवः स्वः।
इससे अग्नि प्रज्वलित करे ।
अर्थ- हे ईश्वर ! आप जीवनदाता, दुःख -विनाशक एवं
सुखस्वरूप हें । |
ओ भूर्भवः स्वर््योरिव भूम्ना पृथिवीव वरिम्णा ।
तस्यास्ते पृथिवि देवयजनि पृष्टेऽग्निमन्नाद-
मन्नादयायादधे ।।
इस मत्र के दवारा वेदी के बीच अग्नि को धर कर उस पर
छोटे-छोटे काष्ठ ओर थोडा कपूर धर, अगला मत्र पट्कर
अग्नि प्रदीप्त करे।
अर्थ--हे प्रभो ! आपकी बनाई इस धरती पर, जहां सब
विद्वान् यज्ञ करते हैँ, मै अग्नि का आधान कर रहा हं । आप
अन्न व एश्वर्य से भरपूर कीजिए ताकि मै अपने समाज के
लोगों की सहायता कर सकू। मेरा मन आः.गश जैसा विशाल
कीजिए तथा मेरे मन में पृथ्वी जेसा धैर्य व सहनशीलता हो ।
अग्नि प्रदीप्त करने का मत्र
ओं उद्बुध्यस्वाग्ने प्रतिजाग्हि त्वमिष्टापूर्ते ख
सूजेयामयंच अस््मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्
विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत ।\
अर्थ- ओं ! हे अग्नि ! तुम प्रदीप्त हो। तुम्हारी कृपा से
यजमान यह यज्ञ सम्पन्न कर सके ओर समाज त्मी सेवा कर
सके। हमें सदबुद्धि दीजिए, हम सब परस्पर मिलकर करे ।
94 २२ |
पहली समिधा नीचे लिखे मत्र के उच्चारण के अत में,
स्वाहा शब्द के साथ हवन-कुड मे रखिए।
ओं अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व ^
वर्धस्व चेद वर्धय चास्मान् प्रजया पशुभिर्ब्रह्म-
वर्चयेनान्नायेन समेधय स्वाहा । इदमग्नये `
जातवेदसे-इदन्न मम ।।
अर्थ- हे अग्निदेव! आप प्रकाशमय दै । इस समिधा एवं
घी से प्रदीप्त होडए। हमें अन्न, धन, सुख व पुत्र से समद्र
कीजिए। हमारी शारीरिक, मानसिक व॒ आत्मिक उन्नति
कीजिए। यह आहुति अग्नि के लिए है। मेरा अपना तो कुछ
नहीं, सब कु प्रमु का दिया हे। |
[नीचे लिखे दो मंत्रों से द्सरी समिधा रखें
ओं खमिधाग्नि दुवस्यत घतैर्बोधयतातिथिम्।
आस्मिन् हव्या जुहोतन ।
ओं सुखमिद्राय . शोचिषे घृत तीत्रं - जुहोतन ।
अग्नये जातवेदसे स्वाहा । इदमग्नये जातवेदखे- इदं
न मम। 0
हे मनुष्यो ! तुम समिधा से अग्नि को प्रदीप्त करके षी
से इस अतिथि को प्रचण्ड. करो ओर फिर इस में हव्य पदार्थ
डालो। 0.९.
जब अग्नि पूर्णतः प्रदीप्त हो जाये ओर यह चमक रही हो
तभी पिघला हुआ घी डालो। यह जातवेदस अग्नि को मेरी
आहूति हे, इस में मेरा कु नही ।
वु ०
२
(आध्यात्मिक भाव यह ह कि हम अपने आप प्रमु को
समर्पित कर के स्त॒तिमत्रों से उसकी उपासना करे । जब
भगवान् की दृ्दय में अनुभूति हो जये, तो हम उसी में लोन
रहें ।)} 5
नीचे लिखे मत्र से तीसरी समिधा रखें ।
ओं तत्वा खमिद्भिरंगिरो घतेन वर्धयामसि ।
बहच्खोचा यविष्ट्य स्वाहा । इदमग्नयेऽदह्िःगरसे
इदन्न सम । |
ठे अग-अग मे विवयमान तेजःस्वरूप, हम जेसे समिधा
ओर घृत से इख अग्नि को बदते हे, वेसे ही तुञ्चे अपने मन
में प्रदीप्त करे । जसे यह अग्नि प्रकाशमय युवा हे, एेसे हौ
तुञ्चे हदय में विद्यमान रखे । यह मेरी समिधा अगिरख अग्नि
` कोदहे। मेरी नहीं हे।
चघूताहुति सत्र |
[नीचे लिखे मत्र से पाँच बार बोलकर चम्मच से घी की
पांच आहुतियों दीजिए
ओं अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व
वर्धस्व चेद वर्धय चाख्पान् प्रजया
पशरुभिर्बह्मवर्चसेनान्नादयेन समेधय स्वाहा ।
ङदखग्नये जातवेदसे-- इदल्न खय ।
जल-प्रसेचन के भत्र
ओं अदितेऽनुमन्यस्व ।। इस मंत्र से पूर्व दिशामें।
२४
अर्थ हे प्रभु ! हमें अच्छे कर्म करने के लिए अच्छी
बुद्धि दीजिए
ओं अदितेऽनुमन्यस्व ।। इससे पश्चिम दिशा मे।
अर्थ--हे पिता परमेश्वर ! हमे शुभ कर्म करने के लिए
अनुकल बुद्धि दीजिए
ओं खरस्वत्यनुमन्यस्व ।। इससे उत्तर दिशा मे।
अर्थ हे पिता परमेश्वर ! पुण्य कर्मो के लिए हमें मेधा
लुद्धि दीजिए
ओं देव खवितः प्रयुव यज्ञं प्रयुव यज्ञपतिं
भगाय । दिव्यो - गन्धर्वः केतपूः केतन्नः पुनातु `
` वाचस्पतिर्वाचं नःस्वदतु ।।
अर्थ--हे ईश्वर ! मेरी सुद्वि को पवित्र रखिए, यज्ञ ओर
यज्ञपति को बदाइए ओर मेरी वाणी सब को प्रिय हो।
इस मंत्र से वेदी के चारों ओर जल छिडकावे।
नीचे लिखे पहले दो मंत्रों से हवनकंड के उत्तर व दक्षिण
भाग में आहुति देरवे--
„ . ओम्. अग्नये स्वाहा। इदमग्नये- उदन्न
मम ।
2. ओ खोमाय स्वाहा । इदं सोमाय-- डदन्न सम ।
3. ओं प्रजापतये स्वाहा । उदं प्रजापतये- उदन्न
मम।
4. ओम् इन्द्राय स्वाहा। इउदमिन्द्राय-- इदन्न
मम ।
5. ओं भूरग्नये स्वाहा । -उदमग्नये-- उदन्न मम ।
२५
6. .ओं सुवर्वायवे स्वाहा। डद वायवे- इदन्न
मस ।
7. ओं स्वरादित्याय स्वाहा। इदमादित्याय--
इदन्न सम ।
8. ओं भूर्भवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः
स्वाहा । इदमग्निवाय्वादित्येभ्य इद न सम १
ग्राजापत्याहुति
1. ओं भूर्परुवः स्ठः। अग्न आयूंषि पवख आ
सुवोर्जमिषं च नः आरे बाधस्व दुच्छनां
स्वाहा । इदमग्नये पवमानाय- इदन्न मम ।
अर्थ-- वह ओम् जीवनदाता, दुःखनाशक ओर सुखों की
` वर्षा करने वाला हे । वह हमें शक्ित्ति एवं जीवन दे। अग्निदेव
को में यह आहूति. देता हूं । मेरा अपना तो कु नीं; सब
कुद हे प्रभु, आप का हे।
2. ओं भूभुर्वः स्वः। अग्नित्रुषिः . पवमानः
पाञ्चजन्यः पुरोहितः तमीमहे महागयं स्वाहा ।
इदमग्नये पवमानाय इदन्न मम ।
अर्थ-- ओं ! आप जीवनदाता, दुःखनाशक ओर सुखो की
वर्षा करने वाले ह । हे प्रभु, आप सर्वोपरि दे, न्यायकारी व
सत्यस्वरूप हँ, आप हमारे नेता है । अग्निदेव ! हम आपको
आहुति देते हं । सब कुछ आपका ही दिया हे, मेरा तो इसमें
कुक भी नहीं
२६
>“ ओं भूर्भुवः स्वः। अग्ने पवस्व स्वपा अस्म
वर्चः सुवीर्यम् दधद्रयिं मयि पोषं स्वा । इदम्
अग्नये पवमानाय- इदन्नमम । ।
अर्थ--आ जीवनदाता, दुःखनाशक ओर सुख की वर्षा
करन वाले हे ईश्वर, जीवन ओर शक्त्ति दीजिए, स्नेह ओर
दया की दृष्टि रखिए। मैं यह आहति अग्निदेव को देता हृ। .
सन कच्छ प्रभु कादियादहं। मेरा तो कच्छ भी नहीं।
4. ओं भूर्भुवः स्वः। प्रजापतं न त्वदेतान्यन्यो“ `
विश्वा जातानि परिता बभूव। यत्कामास्ते
जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम् `
स्वाहा । उदं प्रजापतये- इदन्नमम ।। "
अर्थ- ओं जीवनदाता, दुःख-विनाशक ओर सुखो की `
वर्षा करने वाले हे प्रजापालक प्रभु ! आपसे बट् कर संसार में
कोई दसरा नदीं हे। जिस उत्तम कामना से हम इस यज्ञ में
आहूति अर्पण करते हैँ, हमारी वह शुद्र कामना पूरी हो। हम
धन -एेशवर्यो के स्वामी बनें। यह आहूति आप प्रजापति के
लिए दै, इसमें मेरा कुछ नदीं हे।
[नीचे लिखे आरु मंत्रों का उच्चारणं करते हए यजमान
घी की आहूति डालेगे तथा अन्य भाग लेने वाले स्वाहा' शब्द
के साथ हवन कुंड मे सामग्री की आहुति डालेगे।|
1. ओं त्व नो अग्ने वरुणस्य विद्वान् देवस्य
डेडो ऽव-याखिसीष्ठाः यजिष्ठो वदिनलमः
शोशुचानो विश्वा देषांसि प्रसुसुग्ध्यस्मत् |
स्वाहा । इदमग्नीवखणाभ्याम् इदन्न मम ।। |
कि
२७
। अर्थ- ह अग्ने! आप प्रकाशमान, जानवान्, अश्र नेता व
। सब विद्वानों में श्रेष्ठ है। हमें एेसी बुद्धि दीजिए कि हम कभी
। किसी विद्वान् महापुरुष का अनादर न करे । हमारे हदय से ढेष
की भावना को द्र कर दीजिए। यह आहुति अग्नि एवं वरुण.
देव रूप आप के लिए हे, मेरे लिए नही ।
। 2. ओं ख त्व नो.अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या
उषसो व्युष्टौ अवयश्च नो बरूणं रराणो वीहि
मूडीकं खुहवो न. एधि स्वाहा)
इदमग्नीवरूणाभ्याम्-- इदन्न मम ।।
। अर्थे ज्ञानवान् प्रभुं ! अपने आशीर्वाद से हम सब की
। रक्षा कीजिए । इस प्रभात वेला मे अग्निहोत्रादि शुभ ओर
मगल कार्यो मे आप हमारे विशेषतया समीप दै । आप हमें
एेसी . बुद्धि दीजिए कि हम सदेव विद्वानों व सत्पुरुषो की
संगति में रहं । यह आहुति अग्नि एवं वरुण रूप आप के
लिए हे। सब कुछ आप प्रु का दिया हे, मेरा कुछ भी नहीं ।
3. ओम् इम मे वरूण श्रुधी हवमद्या च मूडय ।
त्वामवस्युराचके स्वाहा । इदं वरूणाय- इदन्न
मम ।।
अर्थ-- दे प्रशंसनीय परमेश्वर ! आप मेरी विनम्र प्रार्थना
सुनिए ओर इस यज्ञ के पवित्र समय पर हम को सुख व
शांति प्रदान कीजिए। मैं अपनी रक्षा के लिए ही तो बार-बार
आपको पुकारता हरं । यह यज्ञ-आहुति आपके लिए है, मेरा तो
कु नहीं; सब कुच प्रभु का दिया हे।
,. १0001111
4. ओं तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दसवामस्तदाशास्ते
यजमानो उविभिः अहेडमानो वरणे
बोध्युरुशंस मा न आयुः प्रमोषीः स्वाहा । इदं
तखछणाय-- इदन्न मम । |
अर्थ हे परम प्रशंसनीय जगदीश्वर! वेद-म॑त्रो से सामग्री
दवारा यजमान जिन अभिलाषाओं के लिए यज्ञ करता है ओर
स्तुति गाता दै, उसकी कामना पूर्णं हो। हमारी प्रार्थना
स्वीकार कीजिए, हमे सदनुद्वि दीजिए,. हम दीषघयु हो ओर
हमारी आत्मार्णं आपकी भक्ति में प्रवृत्त हो। यह यज्ञ-कर्म
आपको समर्पित हे, मेरा तो इसमें कुद नही। सब कुच प्रभु
आप का दिवा हे।
5. ओंये ते शत वरूण ये खहखं यजलियाः पाशा
वितता महान्तः तेभिर्नो अख सवितोत
विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरतः स्वर्काः स्वाहा।
इद वर्णाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो
मरुद्भ्यः स्वकेभ्यः - इदन्न मम ।।
अर्थ- हे वरुण देव ! आप इस संसार की रचना करने
वाले एवं चलाने वाले दै। आपके ज्ञान बिना कोड भी जीव
आंख नहीं पक सकता। यह जो सैकड़ों ओर हजारो प्रकार
` की विघ्न-बाधां, यज्ञ-विषय में उठती हें, उन विघ्न
बाधाओं को द्र करने के लिए. हे सर्वव्यापक प्रभु! आपत
विद्रान् पुरुष कृपा करे ओर सहयोग प्रदान करे । यह यज्ञ की
१९५९६
२९
आहुति वरूण देव व मरुत् देव रूप आप के लिए है। मेरे
लिए नहीं ।
6. ओं अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्यमि-
त्वमयासि।। अया नो यज्ञं बहाख्यया नो धि
भेषजं स्वाहा । डउदमग्नये अयसे इदन्न मम । ।
अर्थ- डे ज्ञानमय प्रभु ! आप सर्वव्यापक दँ । आप पापी
ओर दुष्ट कंर्म॑वालों को, प्रायश्चित्त योग्य लोगों को पवित्र
बनाने वाले दैं। वास्तव मे यह सत्य है कि आप सदैव
कल्याण की धारणा रखते दँ । अतः हे प्रभु जी! आप हमारे
इस यज्ञ को सफल बनाइये। हमें एेसी बुढि व शक्ति प्रदान
कीजिए कि हम बुरे कार्य न करें । यह आहुति अग्निदेव रूप
आप कं लिए हे, मेरा इख पर अधिकार नहीं हे।
7. ओं उदुत्तम वरूण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यस
~ श्रथाय । अथा वयमादित्य ज्रते तवानागसो `
अदितये स्याल स्वाहा । इद
वर्णाऽऽदिव्यायादिलये च- इदन्न खस ।।
अर्थ- हे पूजनीय प्रभु! हम में से आलस्य, प्रमाद,
मिथ्या - भाषण, राग-दवेष, निन्दा, ` लोभ, मोह, अहंकार
आदि--ममता, कीर्सि-यश, उपाधि आदि अभाव वाले बंधनं
` को अच्छी तरह नष्ट कर दीजिए। हे :अविनाशी प्रभु! हम
आपके नियमों का पालन करते हए सदा पाप से बचें ओर
मुक्ति के महान् सुख को प्राप्त कर सके। यह यज्ञ की
आहुति वरुण, आदित्य व अदिति रूप आपके लिए हे। यङ
अब मेरी नहीं हे। „
8. ओं भवतन्नः खमनसो सचेतखावरेपसो । मा
यज्ञं हि सिष्टं मा यजपतिं जालवेदसौ शिवौ
नलतमद्य नः स्वाहा । इदम् जातवेदोभ्याम्ब्
इदन्न मम ।।
अर्थ हे ज्ञानमय अनन्त प्रभु ! हमारी प्रार्थना दै कि
विद्वान् लोग मनसा, वाचा, कर्मणा एक हो। यज्ञ का कभी भी
लोप न होने दे। वेदों के विद्वान् अपने सदुपदेश से हमारा
कल्याण कर । यह आहूति जातवेद भगवान तेरे लिए हे। मेर
लिए नहीं, मेरा इस पर अधिकार नदीं हे।
प्रातःकालीन आहुकियो के मत्र ।
[इन चार मंत्रों से हम एक ओर सूर्य का ओर दूसरी ओर ।
भगवान् का आहवान करते हे। यजमान घी ओर अन्य लोग
सामग्री की आहूति देगे।|
1. ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा । ९
` अर्थ- हे जगत् के उत्पादक, ज्ञान-ज्योति के प्रकाशक
भगवन् ! यह आहूति आपके लिए हे।
2. ओम् सूर्यो वर्चोज्योतिर्वर्चः स्वाहा ।।
` अर्थ ब्रह्मयज्ञ. के दाता, ज्ञानस्वरूप परमेश्वर! आपकी
संत्य वेद -ज्योति सर्वत्र फैले, अर्थात् प्रकाश दे।
= ==
२३९१
3. ओम् ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा ।।
र्थ हमारे नेत्रो की ज्योति प्रभु आप हैँ ओर आप ही से
सारा ससार प्रकाश पा रहा है। हम भी उसी ज्योति की प्राप्ति
। के लिए यह आहुति दे रहे हं ।
। ` 4. ओम् खजूदेवेन खचित्रा खजूरुषसेन्द्रवत्या ¦
जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा ।।
जर्थ उपजने वाली दैवी शक्तियों ओर एश्वर्य के दाता
सूर्यदेव उषा के साथ-साथ हमारी इस आहुति को स्वीकार
करे ओर यज्ञ की सुगंधि को पूरे संसार में फैला दें। इसी
प्रकार हे विश्व के उत्पादक प्रभो ! आपकी अनुभूति करते
हुए हम लोग संसार मे सद्गुणो की आहुति फेला दें ।
| खायंकालीन आहतियां
1. ओम अग्निर्ज्योति्ज्योतिरग्निः स्वाहा ।। .
अर्थ--हे प्रकाश-स्वरूप परमेश्वर ! आप प्रकाशमान,
अगिन प्रकाशमान ओर विश्व की सकल ज्योतियाँ भी आपके
दवारा प्रकाशमान हँ । आप सुख ओर आनन्द दे।
2. ओन अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्च: स्वाहा ।।
अर्थ- हे जगत् के उत्पादक प्रभो ! आप तेज-स्वरूप ओर
अग्नि भी तेज-स्वरूप दे। आप दोनों हमारे लिए मगतकारी
ह|
` ओम् अग्निर्ज्योलिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा ।
[इस मंत्र का पाठ ओं के पश्चात् मन में प्रभु तथा उसकी
- ~~~ न
. ज्योति का मननकर ओर स्वाहा । 8 आहति दे । |
षै 1 ।
३२.
अर्थ भगवान् ज्योति है, अग्नि उन्ही की ज्योति है ओर
अग्नि की ज्योति संसार में है, उन्हीं ज्योतियोः की ज्योति प्रभु
को हम यह आहुति अर्पण करते है।
ओं सजूदेवेन सवित्रा जुषाणो
अग्निर्वेतु स्वाहा । ष वववत्या चु
अर्थ-- प्रकाशमान अग्नि उस ईश्वर का ही रूप है जिसने
यह संसार बनाया ठे ओर ज सारे संसार का अग्रणी हे।
सुगंधि समस्त संसार में फलार ।
प्रातः-सायं दोनों समय के यजल्-मन्त्र
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। उदमग्नये
प्राणाय- इदं न मम।
अर्थ-हे प्रभो ! आप प्राणप्रिय है ओर यह सर्वत्र व्यापकं
होने वाली अग्नि महान् गतिशील हे। प्राणवायु की शुद्वि के
लिए मे यह आहुति अग्नि को अर्पण करता हँ जो केवल मेरे
लिए नही, समस्त ससार की प्राण-शक्त्ति के लिए है। ..
ओं सुववयवेऽपानाय स्वाहा । इदं वायवेऽपानाय
इदन्न मम ।
अर्थ दुःखों को दुर करने वाले भगवन् ! यह आहूति
ससार के कष्टो को द्र करने वाले आप तथा कष्टनिवारक वायु
के लिए हे। मेरा इस में कुछ नही। | |
अग्निदेव ! हमारी आहुति को स्वीकार करे ओर यज्ञ की
1
कति “म
२३२
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा । इदमादित्याय
च्यानाय- ड्द न खम.
अर्थ-- भगवन् ! आप सुख-स्वरूप दहै, सूर्य की ज्योति
ओर उस व्यान वायु के लिए यह आहुति है, -जो जठराग्नि
तीव्र रखती हे। व्यान स्वरूप आपको भी यह आहुति समर्पित
हे। मेरा इसमें कु नहीं ।
ओं भृर्ुवः ख्वरग्निवाय्वादिव्येभ्यः
) प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा ।
इदखग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः डउदन्न
मम ।
अर्थ-हे परमेश्वर आप सर्वाधार, सर्वव्यापी ओर
सुखस्वरूप हँ । आप दुःख-विनाशक प्रु के लिए, अग्नि,
वायु तथा सूर्य की किरणों की पवित्रता के लिए, तथा प्राण-
अपान-व्यान की शुदि के लिए यह सुंदर ओर उत्तम पदार्थो
की आहुति दे। इस पर मेरा अधिकार नीं हे ।
ओं आपो ज्योतीरसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों
स्वाहा । । |
अर्थ- सर्वरक्षक, जल के समान शांतिप्रदाता,
ज्योतिस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, आनन्द-रख के दाता, सबसे
महान्, ओर जो मुवित्तिदाता सम् चित् ओर आनन्दरूप दै,
उस प्रभु को यह आहूति हे ।
ओम् यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपाखते । तया
स्रामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुर स्वाहा । ।
[
। 2 ८1
अर्थ-हे अग्निदेव ! जिस मेधा बुद्धि का विद्वान् जन
आश्रय लेते है, यो बुदि' आपने मेरे पूर्वजो को दी थी,
हे ज्ञानस्वरूप ज्योतिषंय भगवन् ! मुञ्धे भी वह मेधा
लुद्धि प्रदान कीजिए ।
. ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव ।
यद्भद्रं तन्न आसुव स्वाहा ।
अर्थ--ठे जगत्-रचयिता, सुखो के दाता, विश्व प्रेरक
` दिव्ये-स्वरूप परमेश्वर ! आप हमारे समस्त दःखो,
सकटों, बुराइयों को द्र करें ओर जो कल्याणकारक
हो, . उन्हें हमें प्राप्त कराइए।
. ओम् अग्ने नय खुपथा राये अस्मान् विश्वानि
देव॒ वयुनानि विदान्। युयोध्यस्म--
ज्जुहराणसेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम
स्वाहा ।
अर्थ-ओं-हे ईश्वर ! आप स्वप्रकाशस्वरूप एर्व
जानमय दहे। आप हमें उस रास्ते पर लगाइए जो
सच्चे जान एवं धर्म को जाता हे। एेसी कृपा करो कि
हम शुभ कर्मो द्वारा इस संसार में ज्ञान व एश्वर्य प्राप्त
कर॒ सके। हमारे कुटिलता-युक्त कर्म व पाप दूर
कीजिए। शूद्र भावना से प्रेरित होकर हम हमेशा
आपकी उपासना करते रहं । | ।
२५
` स्विष्ट कृत् (मिष्टान्न) प्रायश्चिताषहुति
आत्म-खसमर्पणम्
पूर्णाहुति से पूर्व यजमान पूर्णतः निरभिमान होकर भगवान्
को आत्म -समर्पण करके ही यह आहुति देवयज्ञ मे अर्पण
करे। |
चै
ओम् यदख्य कर्मणोऽत्यरीरिचं यदा न्यूनमिहाकरम् ।
अग्निष्टत् स्विष्टकृद् विद्यात खव स्विष्टं सुहुतं
करोतु मे! अग्नये स्विष्टकृते सुहुतडते सर्व
प्रा्याश्चताहुतीनां कामानां खमर्दयित्रे सर्वान्नः
कामान्त्खमर्दय स्वाहा । इदम् अग्नये स्विष्टकृते--
इदन्न मस । |
अर्थ-- ओखम् ! हे ज्ञानस्वरूप प्रभो ! इस मंगलस्य
यज्ञकर्म को करते हुए मुञ्चसे भ्रम अथवा - भूलकर, जाने या
अनजाने से जो अधिकता या न्यूनता रह गई हो उसे आपं
मेरी उत्तम भावनाओं को जानते हए सुहुत ओर सफल
कीजिए। जो कुछ मेने स्नेह एवं श्रदरा से अर्पित किया हे,
उसे स्वीकार कीजिए । समस्त उत्तम मनोरथो को सिद्ध करने
' वाले, उत्तम दानी, पापों के नाशक, पुण्यो के प्रेरक, ज्ञान-
विज्ञान के लिए हमारी सब पवित्र कामनाओं को आप पूरा
कौजिए। यह आहुति शुद्र पवित्र इष्ट की सिद्वि करने वाले
अग्निरूप परमेश्वर ! आप के लिए है। मेरा अपना कुच
नहीं; सन कु प्रमु आपका ही दिया हे। `
+ #+~ ३
[कक का चक्रः ऊ
ओं प्रजापतये स्वाहा । ।
अर्थ--ओं- मे प्रजापति का आह्वान करता ह, यहं
आहुति प्रजापति के लिए है। यह अब मेरी नहीं है,
[ओं शब्द का उच्चारण करके 'प्रजापतये' मोन होकर इदय में
उस प्रजापति का ध्यान करते हृए फिर स्वाहा बोलकर
आहुति दे । |
गायत्री-मनत्र
।
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112} [१८८ 06 00 21] > ०७.
ओं भूर्भुवः स्वः। नन खवितुवरेण्यम् भर्गो देवस्य ,
धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।।
शब्दार्थ- ओम् तत्--हे परमेश्वर आप
भूः-- प्राणों के प्राण
सुवः- दुःख -विनाशक
स्व:ः-- सुख -स्वरूप
सवितुर्वरेण्यं सारे जगत् कै पिता (उत्पन्न करने ं
भजने योग्य |
भर्गो--शुद्धस्वरूप
देवस्य-- दिव्य शक्तियों को भी शक्ति देने वाले हो ।
धीमदहि--ध्यान करते हे ।
यो-जो आप 1
न:- हमारी, धियः -बुद्धियों को
प्रचोदयात्- खदा शुभमार्ग में, शुभकर्मों के लिए प्रेरित करे।
| नमस्कार मत्र
ओं नमः शस्मवाय च मयोभवाय च। नमः
शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय
च । । | |
शब्दार्थ--ओं- हे परमात्मदेव !
शंभवाय- मै आप सुखदाता को
नमः- नमन करता हू |
मयोभवाय- सबको खदा सुखी रखने वाले
च- ओर |
शंकराय नमः--मगलकारी प्रसु आप को मै नमन करता हू ।
मयस्कराय-- सबके लिए मगल ही मगल करने वाले
च शिवाय नमः- तथा कल्याणकारी को मैं नमन करता हू ।
च शिवतराय- ओर
करने वाले हें । आप को मेरा नमन हो।
पू्णाह्ति
₹ आप सनका अधिक से अधिक कल्याण
ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा !
ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा !!!
अथं --हे जगत्-पिता परमेश्वर ! मने यड जो यज्ञ-कर्म `
सर्वे-कल्याणार्थ किया है ' यह आप की कृपा से पूर्ण हआ !
पूण इञा !! पूर्ण हुञा!!! `
ओं खर्वं चे पूर्णं स्वाहा !! ,
| शान्ति-पाठ ..+ च
ओं द्योः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी ,
शान्तिराय 2 9 0५ ष
शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्यतयः `
शान्तिर्विश्वेदेवा : शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः खर्वं शान्तिः
शान्तिः सा मा शान्तिरेधि। ओं
शान्तिः ! शान्तिः !! शान्ति: !!! ˆ `
। अर्थ-- ओम् ! आकाश एवं अतरिश्च मे शान्ति ही शान्ति हो।
जल-ओर थल में शान्ति हो। ` |
ओषधयो ओर वनस्पतियो मे शान्ति हो । |
ईश्वर के सब रूप हमारे लिए शातिदायकं हो ।
इश्वर हमे शांतिः दे, सारे संसार मे शति हो।
शान्ति शांतिमय हो, प्रभु मुञ्चे एेसी शांति प्रदान करे।
।
ञ् ९
यजरूप चगवान खे प्रार्थना
यज्ञरूप प्रभो ! हमारे भाव . उज्ज्वत्त ` कीजिए ।
छोड देवें छतत-कपट को मानसिक बल दीजिए।।
वेद की बोलें ऋचार्प, सत्यं को धारणः करे।
हर्षं में हों मग्न सारे, शोक-सागर से तरे।।
अश्वमेधादिकं रवारप, यज्ञ॒ पर उपकार को
धर्म-मर्यादा चलाकर, लाभ दं संसार को।।
नित्य श्रदा भक्ति से यज्ञादि उम करते रहे।
रोग-पीडित विश्व के संताप सब हरते रहे।।
भावना मिट जाए मन से पाप अत्याचार की)
कामनार्पं पूर्ण होवे, यज्ञ॒ से नर-नारी की।।
लाभकारी हो हवन हर जीवधारी के लिए।
वायु-जल सर्वत्र हों शुभ गंघ को धारण किए।
स्वार्थभाव मिटे हमारा प्रम-पथ विस्तार हो,
"इदन्न मम'। का सार्थक प्रत्येक में ' व्यवहार हो ।.
हाथ जोड ज्लकारप मस्तक वन्दना हम कर रहे।
नाथ ! करूण-रूप करुणा आपकी सब पर रहे । ।
पूजनीय
१९१८१८41 1१- ~~ (१4१1 1.८4 4 ~ 7447...
क क न
0
जन्म-दिन-पद्ति के मत्र
(1) ओडम् उपप्रियं पत्तिप्नत युवानमाहूतीलुधम्।
अगन्म विश्रलो नमो दीर्घमायुः कृणोतु मे । ।
भावार्थ हे प्रिय प्रशंसनीय प्रभो ! दीर्घ आयु करो। जिस
प्रकार आज में आहुतियों द्वारा यज्ञाग्नि को बदा रहा ह॑ वैसे
ही मे सात्विक अन्न सेवन करके जठराग्नि को बट्ाता हआ
युवा बनू ओर अपने जन्म-दिन निरन्तर मनाता रहं ।
अर्थ कविता मे-
कानिले तारीफ प्यारे ईश्वर!
तेरे गुण गाता ररह में उप्र भर।।
उप्र भी लम्बी करो परमात्मा!
मे सदा बन कर रहं धमत्मा।।
अन्न सादा हो जो मै सेवन करू!
तेरी कृपा से सदा अगे बद
यज्ञ॒ करके गीत गाऊं हर बरस।।
जन्मदिन अपना मनाऊ हर बरस।।
(2) ओम् आयुरस्मै धेहि जातवेदः प्रजां `
त्वष्टरधि-निधेहयस्मे । .
रास्योषं सवितरायुवास्मै शतं जीवाति
शरदस्लवायम् । । |
अर्थ-- |
हे प्रभु! त सर्वं शक्तिमान हे।
तेरा हरजा हर तरफ को ध्यान हे।।
क क नऋ क ओ = ५ का ह क क अ क 9 _ "`
९
जिन्दगी भी आपने ही प्रदान की।
उप्र लम्बी हो मेरे यजमान की।।
खूब बलशाली हो ओर धनवान हो।
नेक दिल ओर नेक यह इन्सान हो| ।
यह दुआ है आप से परवर दिगार।
सो बरस जीता रहे प्यारा कुमार।।'
(3) ओड३म्- शतं जीव शरदो वर्धमानः ।
शत हेमन्ताञ्छतसुं बखन्तान् ।
शत त इन्द्रो अग्निः बृहस्पतिः,
शतायुषा हविषाहार्षमेनम् ।
सो वर्षो तक बटता जा।
जोवनभर तू सुख ही पा।।
सो शरदे सो हेमन्त-वसन्त।
सुख दं तुद्च को दिशा -दिगन्त । ।
इन्द्र॒ तुञ्चे दे एेश्वर्थं महान।
अग्नि करे तेरा कल्याण।। `
बृहस्पति जो ज्ान-भण्डार। .
ज्ञान से तव कर दे उपकार।।
सो वर्षो का जीवन पा।
उत्तम कर्म॒हौ करता जा।।
(4) ओम् जीवास्थ जीन्याय खर्वमायुर्जीव्यासखम् ।
उपजीवा स्थोपजील्याय सर्वमायुर्जीव्याखम् ।
| ४
स जीवास्थ स जीव्यासं सर्वेमायु्जीव्याखम् ।
जीवलास्थ जीव्यासं सर्वनायुर्जीव्यासम्। `
दो मुद्ये टे आप्त जन आशीवदि।
दीर्घ आयु हो मेरी, न हो विषाद। ।
बख्श वह जीवन कि मैः ऊच रहूं |
एसा जीवन विश्व मे धारण करू |
(2) ओम् आयुषायुःकृतां जौनायुष्मान् जीव भ
मृथाः। प्राणेनात्मन्वतां जीव मा मृत्योरूद्गा
वशम् । ।
अर्थ-
शान से अपना मनाऊं जन्म-दिन।
ध्यान से अपना मनाऊं जन्म दिन।।
जो इरादे हों मेरे मजबूत दहो।
अटल चंगे भले मजबूत दहो।।
नेक कामों मे बिताठं तमाम।
विश्व मे कर जाऊं अपना नेक काम।,
आज विद्भानो। मुदे आशीष दो।
मेरी ञ्ञोली . ज्ान-पुष्पों से भरो।।
भद्र . पुरुषो ! भक्तं जन! ओ देवियो!
वेद वचनो से भी तुम आशीष दो।।
ख
ताकि कोई दुःख न आये मेरे समीप ।
सो वर्ष तक हो मुदे जीना नसीब।।
दीघयु बन जियूं मै एेसे,
देवश्रेष्ठं ज्यों जीते दहें।
` प्राणशक्ति का सयम कर के,
आत्माम्त को पीते द।
पूणयु से पूर्वं न सुद्ध को,
मृत्य का सदेश मिले।
प्राणशक्ति में प्राप्त करू नित,
मेरा जीवन-पुष्प खिले।।
सर्वे भवन्तु ` सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
> ईश सब सुखी डो, कोड न दहो दुखारी।
1/1 1610 के भण्डारी ।।
सब भद्र भाव देखे, सन्मार्ग के पथिक हों
दुखिया न कोई होवे, सृष्टि में प्राणधारी ||
वन्दना
सुखी बसे ससार सब्र, दुखिया रहे न कोय।
यह अभिलाषा हम सबकी, भगवन् ! पूरी होय । ।
विद्या, बढि तेज, बल , सबके भीतर होय।
द्ध, पूत, धन-धान्य से, वचित रहे न कोय।।
क
1.8
आपकी भक्त्ि-प्रम से, मन होवे भरपूर।
राग-दरेष से -क्त्त मेरा, कोसों भागे द्र।।
मिले भरोसा नाम का, सदा हमे जगदीश।
आशा तेरे धाम की, बनी रहे मम ईश।।
पाप से हमें बचाइए, करके दया दयाल।
अपना भक्त बनाय के, सबको करो निहाल।।
दलि मे दया उदारता, मन में प्रेम अपार।.
ह्दय मे धीरज वीरता, सबको दो करतार।।
नारायण प्रभु आप दहं, पाप के मोचन-डार।
दुर करो अपराध सब, कर दो भव से पार।
हाथ जोड विनती करू, सुनिए कृपा-निधान।
साधु-सगत सुख दीजिए, दया नम्रता दान।।
ज -र
४५
यज-महिमा
भजन-1
होता दै सारे विश्व का कल्याण यज्ञ से।
जल्दी प्रसन्न होते हँ भगवान यज्ञ॒ से।।
, ऋषियों ने ऊचा माना हे स्थान यज्ञ का।
करते दें दुनिया वाले सब सम्मान यज्ञ का।।
दर्जा दे तीन लोकों मे-महान यज्ञ का।
भगवान का हे यज्ञ ओर भगवान यज्ञ का।
जाता है देवलोक में इन्सान यज्ञ से।।होता & .
` करना हो यज्ञ प्रकट हो जाते है अग्निदेव ।
` डालो विहित पदार्थ शूद्र खाते है अग्निदेव ।
. सब को प्रसाद यज्ञ का परहचाते है अग्निदेव ।
बादल बना के भूमि पर बरसाते हँ अग्निदेव ।
बदले में एक के अनेक दे जते हँ अग्निदेव । `
चैदा अनाज करता, है भगवान यज्ञ से।
हता है सार्थक वेद का विज्ञान यज्ञ से।।होता है
, शक्ति ओर तेज यश भरा इस शुद्ध नाम में।
साश्षी यही हे विश्व के हर नेक, काम मे।
पूजा है इसको श्रीकृष्ण ने भगवान राम ने।
होता है कन्यादान भी इसी के सामने।
मिलते दै राज्य, कीर्सि, सन्तान यज्ञ से। ।होता हे ..
| | >
4. सुख शान्तिदायक मानते हे सब मुनि इसे। . ५
वशिष्ठ विश्वामित्र ओर नारद मुनि इसे।
इसका पुजारी कोई पराजित नहीं होता।
भय् यज्ञ-कर्ता को कभी किञ्चित् नहीं होता।
होती ह सारी मुश्किलें आसान. यज्ञ से। ।होता है `
चबजन-<ः
आज मिल सब गीत गाओ, उस प्रभु के धन्यवाद ।
जिसका -यश नित गाते है गंधर्व गुणि-जन धन्यवाद ।।
मदिरो मे कंदरों मे पर्वतो के शिखर पर |
« देते हँ लगातार सौ-सौ बार भुनिवर धन्यवाद ।
करते हं. जंगल में मगल पक्चिगण हर शख पर ।
पाते हे “ आनन्द मिल गाते है स्वर भर धन्यवाद ।
कुप में तालाब मे, सिधु की गहरी धार मे
प्रम रस में तृप्त हो करते हैः जलचर धन्यवाद ।
शादियो में जलसयो मे यज्ञ ओर उत्सव के बाद ।
मीठे स्वर से मिल करं नारी-नर सब धन्यवाद।
| गान कर अमीचंद भजनानन्द ईश्वर की स्तुति। `
ध्यान से सुनते हे श्रोता, कान धर-धर धन्यवाद।।
भजन-3 1
अन सौपे दिया इस जीवन का, सब भार तुम्हारे हाथो मे। `
हे जीत तुम्हारे हाथो मे, ओर हार तुम्हारे हार्थो मे।।
| कवक क कि हः =
प क हर
| ५७.
मेरा निश्चय हे बस एक यही, इस बार तुम्हे पा जाऊं मै।
अर्पण कर दरु जगती-भर का सब प्यार तुम्हारे हाथों मे।
यातोमैःजगसे दुर रह, ओर जग में रहं तो एेसे रह ।
इस पार तुम्हारं हाथों मे, उस पार तुम्हारे हाथों मे।।
यदि मानुष ही मुञ्चे जन्म मिले, तो तव चरणों का पुजारी रहं ।
मुञ्च सेवकं की रग-रग का, हो तार तुम्हारे हाथों में।।
जब-जब संसार का बंदी बनू, दरबार तेरे मे आऊ मे।
हो कर्मो का मेरे निर्णय, सरकार तुम्हारे हाथों मे।।
मुञ्च मे तुञ्च में हे भेद यही, पै नर रहत् नारायण हे।
मै हं संसार के हाथों मे, संसार तुम्हारे हाथों मे।।
अनासो. 04101410 449
भजन -4
पितु मातु सहायकं स्वामी सखा, तुम ही इक नाथ हमारे हो।
जिनके कद्रु ओर आधार नहीं, तिनके तुम ही रखवारे हो|
सब भांति सदा, सुखदायक हो, दुःख दुर्गुण नाशन हारे हो।
प्रतिपाल करो सगरे जग को. अतिशय करूणा उर धारे हो।।
भूलि हें हम ही तुमको तुम तो, हमरी सुधि नाहि बिसारे हो।
` उपकारन को कद्र अत नहीं, चिन ही छिन जो विस्तारे हो ।।
महाराज महा महिमा तुम्हरी, समुद्े विरले बुधवारे हो।
शुभ शांति-निकेतन प्रेमनिधे, मन-मदिर के उजियारे हो।।
यही जीवन के तुम जीवन हो, इन प्राणन के तुम प्यारे हो।
तुम सो प्रभु पाय 'प्रताप' हरि, केहि के अब ओर सहारे हो। ।
को
कक त क
म) योनि क ^ क
1 ॐ ~
जजन -5
प्रभो ! म आतो गया ह तेरे दर पै लेकिन
म सर को ज्चुकाने के काबिल नहीं हु ।
तेरी मेहरबानी का है बोञ्य इतना ।
" कि जिस को उठाने के काबिल नहीं हू । ।
1. तुम्हीं ने अता की मुञ्चे जिन्दगानी, `
तेरी महिमा मैने, फिर भी न जानी।
केरजदार तेरी दया का हूं इतना,
किमे तो चुकाने के काबिल नहीं हु । । तेरी मेहरबानी
< यह माना कि दाता हो तुम कुल जहाँ के, |
मगर ली फेलाऊं, मै केसे आके ?
जो पहले दिया हे वह कु कम नहीं हे
में उसको पचाने के काबिल नहीं ह| ।मेआतो....
3. जमाने की चाहत में खुद को मिटाया,
तेरा नाम हरगिज जुबां पै न आया।
गुनाहगार हूं मे, सजावार हूं मैः
त मुरं दिखाने के कानिल नहीं ह ।। करजदीर तेरा
4. तमन्ना यही है कि सर को शुका दँ
तेरा दर्श इक बार जी-भरकेपाल्।
सिवा दिल के ट्कडो के ए मेरे दाता !
म कुछ भी चढ़ाने के काबिल नहीं ह ।
मै आ तो गया हृं तेरे दर पै लेकिन,
म सर को ज्यकाने के काबिल नहीं ह । ।
४९
जन -©
वेद स्वाध्यायः सत्संग करते रो,
एकं दिन प्राप्त सत् ज्ञान ` हो जायेगा ।
शांति होगी परम श्राति मिट जायेगी,
पाप-तापों का अवसान हो जायेगा।।
फूल ज्योंही खिला बाग सुरभित हुआ
मस्त भंवरों की- अने. लगीं टोलियों।
सद्गणों की सुगन्धि लुटते चलो, `
सारी जगती मे सम्मान दो जायेगा।।
तन से सेवा करो, मन से सदभावना,
धन से हरो दुखी दीन. की दोनता।
करिये सन्तुष्ट भगवान के विश्व॒ को,
तुमसे सन्तुष्ट भगवान हौ जायेगा ।।
आज आई बडी आपदा की . घडी,
आर्यो ! त॒म पे दै जिम्मेदारी बडी,
आप हँ गर सजग पूर्ण कर्तव्यरत,.
राष्ट का पूर्णं उत्थान हो जायेगा।।
याद जनता करेगी तुम्दे सर्वदा,
नाम मरकर भी दुनिया में होगा अमर ।
गर हकीकत . ओर श्रदानन्द सम,
त प्रकाशार्य बलिदान हो जायेगा।।
अचजनत-
ईश्वर तुम्हीं दया करो, तुम बिन हमारा कौन दे।
दुर्बलता दीनता हरो, तुम बिन हमारा कौन .हे।।
का क काक्का क ~ =
(
~= न ~" ००० प्रीये
मूढ मृग तुल्य चारों दिशाओं मे तु,
0 ॥।
माता तुही तुह पिता, बन्धु तू हौ तु सखा।
तू ही हमारा आसरा, तुम बिन हमारा कौन हे ।।
जग को रचाने वाला त्, दुखडे मिटाने वाला तू।
बिगड़ी बनाने वाला त्, तुम बिन हमारा कौन हे ।। ॥
तेरी दया को छोडकर, कुछ भी नहीं हमे खर् । ॥॥
जाये तो जये हम किधर, तुम निन हमारा कौन टै ।।
तेरी लगन तेरा मनन, भक्ति तेरी तेरा भजन।
तेरी ही आते हम शरण, तुम बिन हमारा कोन हे ।।
बालक देँ हम सभी तेरे, त् दे पिता परमात्मा।
रेष्ठ मार्ग पर चला, तुम बिना हमारा कौन े।।
भजन -8
पास रहता हू, तेरे, सदा मै अरे, '
तू नहीं देख पाये तो मैं क्या करू
टटने मुद्चको जाए तो मैः क्या करूं ?१
कोसता दोष देता मुञ्चे हे सदा, . `
मुञ्च को यह न दिया, मु्च को वह न दिया। 4 |
श्रेष्ठ सबसे मनुज तन तुह्धे दे दिया,
सब्र तुञ्को न आए तो मै क्या करू ??
तेरे अन्तःकरण में विराजा ह मे,
कर न यहे पाप संकेत करता ह मै।
लिप्त विषयों मे तू सीख मेरी भली, 0
| ध्यान मेत् न लाए तो मै क्या करू ?९
जांच अच्छे सुर की तुञ्चे हो सके, }
हसलिपः द्धि तनं तुञ्चे ठी हे अरे । ।'
किन्तु त मन्दभागी अमृत छोड कर, 901
घोर विषय-विष को पीये तो मै क्या करू ?५
फूल -फल-शाक-मेवे ख दुग्धादि सन,
मधुर आहार मैने तुञ् दँ. दिये।
तू तम्बाकर् अमल मय मांसादि खा, ५
रोग तन में लगये तो मैं क्या करू?
सरस सुखकर पदार्थ-सुद्श्यों भरा,
विश्व सुन्दर दै केसा यह मैने रचा।
अपनी करतूत से स्वर्गं वातावरण,
नएकतु ही बनाये तो मै क्या करू ??
भजन-9
तेरे पूजन -को भगवान ! बना मन-मन्दिर आलीशान।
किसने देखी तेरी सूरत, कोन बनावे तेरी मूरत,
तू है निराकार भगवान--बना मन-मन्दिर आलीशान।।
यह ससार हे तेरा मन्दिर, तू ही रमा है डस के अन्दर,
धरते ऋषि मुनि सब ध्यान--बना मन-मन्दिर आलीशान । ।
सागर तेरी शान बतवे, पर्वत तेरी शोभा गावे,
हारे ऋषि मुनि सब आन-बना मन-मन्दिर आलीशान । ।
किसने जानी तेरी माया, किसने भेद तुम्हारा पाया,
तेरा रूप अनूप महन--बना मन-मन्दिर आलीशान ।
तूने राजा रंक -बनाये, तूने भि्रुक राज बिराये,
४4 लीला ईश महान-- बना मन-मन्दिर आलीशान ।।
अः
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भभ
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=£ ~ वि, ॥ 0 ता ~ ॥ 9 ।
१ ५२ : ¢ |
तुहीजलमे,तही थलमे, त् हर डाल की हर पातल में,
तु हर दिल में मूर्तिमान-बना मन-मन्दिर आलीशान।।
जजन -10
ना 1. प्रचोदयात्।
तेज हे, छाया हुआ सभी स्थान।
त सृष्टि की वस्तु-वस्तु मे तू हो रहा है विद्यमान ।।
१५ स्वः ........ प्रचोदयात्।
रा ही धरते ध्यान हम , मांगते तेरी दया।
ईश्वर हमारी बुद्वि को श्रेष्ठ
, श्रेष्ठ मार्ग पर चला।।
ओखम् भू स्व 4.14. प्रचोदयात्।
णि ककिर ष्यििकष्क््छी _ ्
वा -
ˆ हर प्रकार ठी बम्कपत्नशष्ा
सम्यक करे ।
रतन बुक कम्पनी
२४२, गली कजस, दरीबा कलां
दिल्ली- ११०००९६
फोन : २७६६ ४3